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बेडरूम से बाहर होते बाप

दिल की बातें
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दिल्ली रोड पर स्थित मुकुट महल होटल के पास एक यात्री प्रतीक्षालय है जो अमूमन खाली रहता है। अक्सर ही उधर से गुजरते हुए उसकी रिक्तता मन में सवाल पैदा करती थी। ये ऐसा क्यों है? लेकिन, उन्हीं दिनों जब सर्दी काफी चरम पर थी वहां से मैं और मेरे वरिष्ठ साथी गुजर रहे थे। अचानक ही हमारी नजर यात्री प्रतीक्षालय के बाहर पड़े कपड़ों की गट्ठर पर गई। हम दोनों वहां पहुंचे तो देखा कि एक वृद्धा कुहासे के बीच निकली हल्की धूप में खुद को ठंड से बचाने की कोशिश कर रही है। शायद, उस धूप में वह उन कपड़ों को सूखाने की कोशिश भी कर रही थी जो कुहासे में गीले हो गए थे। न तो वह कुछ बताने की आवास्था में थी न ही उसके बारे में कोई जानकारी मिल पाई। इसलिए उसे वक्त के हवाले छोड़ना पड़ा।
अनायास, मैं यादों में खो गया। करीब तीन वर्ष पहले जब मैं बुलंदशहर में था तो एक दिन पुलिस लाइन रोड पर कालीचरण समोसावाले के पास इसी अवस्था में एक वृद्धा को देखा था। उसके बारे में जानकारी भी मिली थी। पता चला कि जिन दुकानों व घर के सामने सड़क पर वह गुदडि़यों के बीच पड़ी हुई थी कभी उसका अपना हुआ करता था। पति के मरने के बाद तीन बेटों ने मां को किनारे करते हुए संपत्ति बांट ली और उस बुढि़या को भगवान भरोसे छोड़ दिया।
पढ़ाई के दौरान दिल्ली में रहता था। उत्तरी दिल्ली। वही, हड्सन लाइन, परमानंद और मुखर्जी नगर का इलाका। अक्सर, देखता था कि बालकनी में बिस्तर लगा हुआ है। पता चला कि ये भी बुजुर्ग हैं जो तंगहाल घर में बेटों के बड़े होने पर बेडरूम से बाहर कर दिए गए हैं। तब दिल्ली को कोसता था। उनकी संवेदना पर व्यंग्य करता था। सोचता था यूपी-बिहार कितना अच्छा है जहां, बुजुगरें को झांपी (बहुत सहेज कर) रखा जाता है। उम्र बढ़ने के साथ ही उनका घर ही नहीं समाज में महत्व भी बढ़ता जाता है।
अपने गांव की एक कहानी याद आ रही है शायद यहां मौजू है-
कहते हैं एक राजा की बेटी को गांव के गरीब के बेटे से प्यार हो गया। शादी बेमेल थी इसलिए राजा राजी नहीं हुए। राजकुमारी ने अन्न-जल त्याग दिया। तब जाकर राजा पसीजे। लेकिन, उन्होंने शर्त रख दी। शर्त थी कि बारात में कोई बुजुर्ग नहीं आएगा। शर्त मान ली गई। लेकिन, लड़के वाले इस बात के लिए कतई तैयार नहीं थे कि बारात में कोई बुजुर्ग न जाए। यह उनकी परंपरा के विपरीत था। इसलिए एक बड़ी सी झांपी (बांस की एक बड़ी टोकरी जो ऊपर से बंद होती है और जिसे सुविधानुसार खोल भी सकते हैं।) तैयार की गई। उसमें बुजुर्ग को रख दिया गया। खाना-पानी की भी व्यवस्था कर दी गई। राजा के यहां बारात पहुंची।
द्वारपूजा के समय राजा ने एक और शर्त रख दी। कहा- जितने बाराती आए हैं उतने बकरे का इंतजाम किया गया है। हर बाराती जब एक बकरा खाएंगे तभी शादी होगी। बाराती चकरा गए। अंत में उन्होंने झांपी में लाए गए बुजुर्ग से सलाह ली। बुजुर्ग ने कहा कि उन्हें हां कर दो लेकिन, खाने के क्रम के बारे में शर्त रख दो। शर्त यह रखो कि जितने बकरे हैं सब बारी-बारी से बनेंगे और गर्मागर्म पंगत में परोसे जाएंगे। ऐसा ही हुआ। बकरे खत्म हो गए, राजा की शर्त पूरी हो गई और एक बेमेल युगल की शादी हो गई।
ऐसे प्रसंग किसी पाठ्यक्रम में शामिल नहीं है। आज अमिताभ बच्चन की फिल्में पाठ्यक्रम का हिस्सा बन चुकी हैं। शिक्षा और इतिहास को राजनीतिक चश्मे से देखा जा रहा है। नैतिक शिक्षा के नाम पर कुछ इतिहास से उठाकर प्रेरणात्मक प्रसंग रंगीन चित्रों के साथ किताब में परोस दिए जा रहे हैं। लेकिन, क्या आदर्श स्थिति का अनुकरण उतना ही सहज है जितना एक सामान्य और आम जन से जुड़े प्रसंगों का? एक बात और कि अगर हम शिक्षा में भी ग्लैमर भर देंगे तो फिर संस्कारगत नैतिकता की गुंजाइश कितनी रह जाएगी? इसलिए जरूरी है कि गांव को, किसानों को, संयुक्त परिवार को किताब का हिस्सा बनाया जाएगा। यह जरूर है कि एकल परिवार में स्वतंत्रता है लेकिन, उससे ज्यादा एकाकीपन भी है। बच्चे दादा-दादी, नाना-नानी के प्यार से महरूम रह जाते हैं और यही दंश फिर आगे चलकर उस पीढ़ी को भी झेलना पड़ता है जो एकाकीपन को मजा समझते हैं।

नवाज़ देवबंदी ने लिखा है-
दो बूढ़े चिरागों का उजाला न चला जाए,
आए जो बहू हाथ से बेटा न चला जाए।

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